मंगलवार, 19 दिसंबर 2017

हनुमानजी औरउनकी पत्नी का मंदिर सुवर्चला के साथ

हनुमानजी औरउनकी पत्नी का मंदिर सुवर्चला के साथ 


हनुमान जी को बाल ब्रह्मचारी माना जाता है इसलिए हनुमान जी लंगोट धारण किए हर मंदिर और तस्वीरों में अकेले दिखते हैं। कभी भी अन्य देवताओं की तरह हनुमान जी को पत्नी के साथ नहीं देखा होगा। संकट मोचन हनुमान जी के ब्रह्मचारी रूप से तो सभी वाकिफ हैं, एवं उन्हें बाल ब्रम्हचारी भी कहा जाता है। लेकिन क्या अपने कभी सुना है की हनुमान जी की बाकायदा शादी भी हुई थी और उनका उनकी पत्नी के साथ एक मंदिर भी है अगर आप हनुमान के साथ उनकी पत्नी को देखना चाहते हैं तो आपको आंध्रप्रदेश जाना होगा। आंध्रप्रदेश के खम्मम जिले में हनुमान जी का एक प्राचीन मंदिर है। इस मंदिर में हनुमान जी के साथ उनकी पत्नी के भी दर्शन प्राप्त होते हैं। यह मंदिर इकलौता गवाह है हनुमान जी के विवाह का। जिसके दर्शन के लिए दूर दूर से लोग आते हैं।
खम्मम जिला हैदराबाद से करीब 220 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। अत: यहां पहुंचने के लिए हैदराबाद से आवागमन के उचित साधन मिल सकते हैं। हैदराबाद पहुंचने के लिए देश के सभी बड़े शहरों से बस, ट्रेन और हवाई जहाज की सुविधा आसानी से मिल जाती है।
हनुमान जी का यह मंदिर काफी मायनों में ख़ास है। उस मंदिर में दोनों की साथ-साथ पूजा होती है। सुवर्चला और बजरंगबली ऐसे दंपत्ति के उदाहरण हैं जिन्होंने एक दूसरे की खुशियों और कार्यसिद्धि के लिए अविस्मरणीय त्याग दिया साथ ही एक दूसरे के सच्चे पूरक होने का सच्चा प्रमाण भी दिया। इसीलिए खम्मम के मंदिर के बारे में कहा जाता है कि यहां आने वाले विवाहित जोड़ों पर हनुमान जी और मां सुवर्चला का परम आशीर्वाद बरसता है और उनके दांपत्य जीवन में कभी विघ्न नहीं आते। यही करण है की दूर दूर से लोग यहाँ हनुमान के इस स्वरूप के दर्शन के लिए आते हैं।
हनुमान जी के सभी भक्त यही मानते आये हैं की वे बाल ब्रह्मचारी थे और बाल्मीकि, कम्भ, सहित किसी भी रामायण और रामचरित मानस में बालाजी के इसी रूप का वर्णन मिलता है। लेकिन पंडितो की माने तो उत्तर रामायण के लव कुश की कथा के बाद हनुमान जी की शादी का जिक्र आता है यही कारण है कि किसी भी रामायण में इसका उल्लेख नहीं है।
पराशर संहिता में भी इसी बात का उल्लेख है। जिसके आधार पर पंडितो का दावा है की भले ही सभी सदा से ये मानते आए हैं कि मां अंजऩी के लाल, केसरी नंदन और भगवान श्रीराम के अनन्य भक्त महावीर हनुमान बाल ब्रह्मचारी थे। किंतु ये पूर्ण रुप से सत्य नहीं है। हनुमान जी ने बाकायदा विधि विधान से विवाह किया था और उनकी पत्नी भी थी। इसका सबूत है यह खास मंदिर जो प्रमाण है हनुमान जी की शादी का। ये मंदिर याद दिलाता है रामदूत के उस चरित्र का जब उन्हें विवाह के बंधन में बंधना पड़ा था। लेकिन इसका ये अर्थ नहीं कि भगवान हनुमान बाल ब्रह्मचारी नहीं थे। पवनपुत्र का विवाह भी हुआ था और वो बाल ब्रह्मचारी भी थे।
 ये मंदिर याद दिलाता है त्रेता युग में जब हनुमान जी ने भगवान सूर्य को अपना गुरु बनाया था। हनुमान, तेज़ी से सूर्य से अपनी शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। सूर्य कहीं रुक नहीं सकते थे इसलिए हनुमान जी को सारा दिन भगवान सूर्य के रथ के साथ साथ उड़ना पड़ता और भगवान सूर्य उन्हें तरह-तरह की विद्याओं का ज्ञान देते। लेकिन हनुमान को ज्ञान देते समय सूर्य के सामने एक दिन धर्मसंकट खड़ा हो गया। कुल ९ तरह की नेविकरानी विद्या में से हनुमान को उनके गुरु ने पंचवीर्यकरण यजअणि पांच तरह की विद्या तो सिखा दी लेकिन बाकि बची चार तरह की विद्या विद्याएं और ज्ञान ऐसे भी थे जो केवल किसी विवाहित को ही सिखाए जा सकते थे। किंतु हनुमान पूरी शिक्षा लेने का प्रण कर चुके थे और इससे कम पर वो मानने को राजी नहीं थे। इधर भगवान सूर्य के सामने संकट ये भी था कि वो धर्म के अनुशासन के कारण किसी अविवाहित को कुछ विशेष विद्याएं नहीं सिखला सकते थे। ऐसी स्थिति में सूर्य देव ने हनुमान को विवाह की सलाह दी और अपने प्रण को पूरा करने के लिए हनुमान भी विवाह सूत्र में बंधकर शिक्षा ग्रहण करने को तैयार हो गए। लेकिन हनुमान के लिए दुल्हन कौन हो और कहा से वह मिलेगी इसे लेकर सभी चिंतित थे। ऐसे में सूर्य ने ही अपने शिष्य हनुमान को राह दिखलाई। सूर्य देव ने हनुमानजी से कहा कि सुवर्चला परम तपस्वी और तेजस्वी है और इसका तेज तुम ही सहन कर सकते हो। सुवर्चला से विवाह के बाद तुम इस योग्य हो जाओगे कि शेष 4 दिव्य विद्याओं का ज्ञान प्राप्त कर सको। सूर्य देव ने यह भी बताया कि सुवर्चला से विवाह के बाद भी तुम सदैव बाल ब्रह्मचारी ही रहोगे, क्योंकि विवाह के बाद सुवर्चला पुन: तपस्या में लीन हो जाएगी। इसके बाद हनुमान ने अपनी शिक्षा पूर्ण की और सुवर्चला सदा के लिए अपनी तपस्या में रत हो गई। इस तरह हनुमान भले ही शादी के बंधन में बांध गए हो लेकिन शाररिक रूप से वे आज भी एक ब्रह्मचारी ही हैं। कुछ विशेष परिस्थियों के बन जाने पर बजरंगबली को सुवर्चला के साथ विवाह के बंधन में बंधना पड़ा।
यह पाराशर संहिता में कहा गया है कि सूर्य ने ज्येष्ठा सूद दशमी पर अपनी बेटी सुवर्चला की शादी की पेशकश की। यह नक्षत्र उत्तरा में बुधवार की थी। ज्येष्ठा सूद दसमी दिन हनुमान विवाह के बारे में "हनुमत कल्याणं " में भी लिखा है।
इस मंदिर को सिंगरेनी खान के शासको ने बनवाया था। मंदिर को बनवाने के पीछे ख़ास मकसद भी है। और वहा आने वाले लोगो के दांपत्य के सारे दुःख दूर होते हैं।कहा जाता है की हनुमान जी के उनकी पत्नी के साथ दर्शन करने के बाद घर मैं चल रहे पति पत्नी के बीच के सारे तनाव खत्म हो जाते हैं। यही करण है की प्राचीन मान्यता वाले इस मंदिर में काफी लोग हनुमान जी के इस स्वरुप के दर्शन करने आते हैं। भगवान सूर्य ने ही इन दोनों का विवाह जग कल्याण कराया था।

बुधवार, 25 अक्तूबर 2017

द्रष्टा और साक्षी में अंतर

द्रष्टा और साक्षी में अंतर
द्रष्टा और साक्षी में अंतर  ****** द्रष्टा और साक्षी में अंतर ******  कुछ लोग जो ध्यान में रूचि रखते है उन को ये समझना होगा की ध्यान में और जीवन में यदि जागृत रहना है तो द्रष्टा और साक्षी को समझना होगा न की द्रष्टा भाव और साक्षी भाव क्यों की किसी भाव में लींन नहीं होना है मात्र द्रष्टा और साक्षी की बात हो रही है एक कहानी है बुध के समय की ***** एक राजकुमार दीक्षित हुआ था। पहले दिन ही वह भिक्षा मांगने गया था। उसने, जिस द्वार पर बुद्ध ने भेजा था, भिक्षा मांगी उसे भिक्षा मिली उसने भोजन किया, वह भोजन करके वापस लौटा लेकिन उसने बुद्ध को जाकर कहा क्षमा करें वहां मैं दुबारा नहीं जा सकूंगा बुद्ध ने कहा, ‘क्या हुआ उसने कहा कि ‘यह हुआ कि जब मैं गया दो मील का फासला था रास्ते में मुझे वे भोजन स्मरण आए, जो मुझे प्रीतिकर हैं और जब मैं उस द्वार पर गया, तो उस श्राविका ने वे ही भोजन बनाए थे। मैं हैरान हुआ। मैंने सोचा, संयोग है। लेकिन फिर यह हुआ कि जब मैं भोजन करने बैठा, तो मेरे मन में यह खयाल आया कि रोज अपने घर था, भोजन के बाद दो क्षण विश्राम करता था। आज कौन विश्राम करने को कहेगा! और जब मैं यह सोचता था, तभी उस श्राविका ने कहा, भंते, अगर भोजन के बाद दो क्षण रुकेंगे और विश्राम करेंगे, तो अनुग्रह होगा, तो कृपा होगी, तो मेरा घर पवित्र होगा। तो मैं हैरान हुआ था। फिर भी मैंने सोचा कि संयोग होगा कि मेरे मन में खयाल आया और उसने भी कह दिया। फिर मैं लेटा और विश्राम करने को था कि मेरे मन में यह खयाल उठा कि आज न अपनी कोई शय्या है, न कोई साया है। आज दूसरे का छप्पर और दूसरे की दरी पर, दूसरे की चटाई पर लेटा हूं। और तभी उस श्राविका ने पीछे से कहा, भिक्षु, न शय्या आपकी है, न मेरी है। और न साया आपका है, न मेरा है। और तब मैं घबरा गया। अब संयोग बार-बार होने मुश्किल थे। मैंने उस श्राविका को कहा, क्या मेरे विचार तुम तक पहुंच जाते हैं? क्या मेरे भीतर चलने वाली विचारधाराएं तुम्हें परिचित हो जाती हैं? उस श्राविका ने कहा, ध्यान को निरंतर करते-करते अपने विचार शून्य हो गए हैं और अब दूसरों के विचार भी दिखायी पड़ते हैं। तब मैं घबरा गया और मैं भागा हुआ आया हूं। और मैं क्षमा चाहता हूं, कल मैं वहां नहीं जा सकूंगा।’ बुद्ध ने कहा, ‘क्यों?’ उसने कहा कि ‘इसलिए कि…कैसे कहूं, क्षमा कर दें और न कहें वहां जाने को।’ लेकिन बुद्ध ने आग्रह किया और उस भिक्षु को बताना पड़ा। उस भिक्षु ने कहा, ‘उस सुंदर युवती को देखकर मेरे मन में विकार भी उठे थे, वे भी पढ़ लिए गए होंगे। मैं किस मुंह से वहां जाऊं? कैसे मैं उस द्वार पर खड़ा होऊंगा? अब दुबारा मैं नहीं जा सकता हूं।’ बुद्ध ने कहा, ‘वहीं जाना होगा। यह तुम्हारी साधना का हिस्सा है। इस भांति तुम्हें विचारों के प्रति जागरण पैदा होगा और विचारों के तुम निरीक्षक बन सकोगे।’ मजबूरी थी, उसे दूसरे दिन फिर जाना पड़ा। लेकिन दूसरे दिन वही आदमी नहीं जा रहा था। पहले दिन वह सोया हुआ गया था रास्ते पर। पता भी न था कि मन में कौन-से विचार चल रहे थे। दूसरे दिन वह सजग गया, क्योंकि अब डर था। वह होशपूर्वक गया। और जब उसके द्वार पर गया, तो क्षणभर ठहर गया सीढ़ियां चढ़ने के पहले। अपने को उसने सचेत कर लिया। उसने भीतर आंख गड़ा ली। बुद्ध ने कहा था, भीतर देखना और कुछ मत करना। इतना ही स्मरण रहे कि अनदेखा कोई विचार न हो, अनदेखा कोई विचार न हो। बिना देखे हुए कोई विचार निकल न जाए, इतना ही स्मरण रखना बस। वह सीढ़ियां चढ़ा, अपने भीतर देखता हुआ। उसे अपनी सांस भी दिखायी पड़ने लगी। उसे अपने हाथ-पैर का हलन-चलन भी दिखायी पड़ने लगा। उसने भोजन किया, एक कौर भी उठाया, तो उसे दिखायी पड़ा। जैसे कोई और भोजन कर रहा था और वह देखता था। जब आप दर्शक बनेंगे अपने ही, तो आपके भीतर दो तत्व हो जाएंगे, एक जो क्रियमाण है और एक जो केवल साक्षी है। आपके भीतर दो हिस्से हो जाएंगे, एक जो कर्ता है और एक जो केवल द्रष्टा है। उस घड़ी उसने भोजन किया। लेकिन भोजन कोई और कर रहा था और देख कोई और रहा था। और हमारा मुल्क कहता है – और सारी दुनिया के जिन लोगों ने जाना है, वे कहते हैं – कि जो देख रहा है, वह आप हैं; और जो कर रहा है, वह आप नहीं हैं। उसने देखा, वह हैरान हुआ। वह नाचता हुआ वापस लौटा। और उसने बुद्ध को जा और उसने बुद्ध को जाकर कहा, ‘धन्य है, मुझे कुछ मिल गया। दो अनुभव हुए हैं; एक तो यह अनुभव हुआ कि जब मैं बिलकुल सजग हो जाता था, तो विचार बंद हो जाते थे।’ उसने कहा, ‘एक अनुभव तो यह हुआ कि जब मैं बिलकुल सजग होकर देखता था भीतर, तो विचार बंद हो जाते थे। दूसरा अनुभव यह हुआ कि जब विचार बंद हो जाते थे, तब मैंने देखा, कर्ता अलग है और द्रष्टा अलग है।’ बुद्ध ने कहा, ‘इतना ही सूत्र है। जो इसे साध लेता है, वह सब साध लेता है वो विचार से मुक्त हो जाता है

बुधवार, 10 मई 2017



गोरख मुंडी बूढ़े में जवानी भर दे, आँखों को 6/6 और बुद्धि को प्रखर कर दे, सैकडों रोगों का अद्भुत रामबाण उपाय



गोरख मुंडी (Sphaeranthus indicus) :
गोरख मुंडी को संस्कृत में इसकी श्रावणी महामुण्डी अरुणा, तपस्विनी तथा नीलकदम्बिका आदि कई नाम हैं। यह अजीर्ण, टीबी, छाती में जलन, पागलपन, अतिसार, वमन, मिर्गी, दमा, पेट में कीड़े, कुष्ठरोग, विष विकार, असमय बालो का सफ़ेद होना, आँखों के रोग आदि में तो लाभदायक होती ही है, इसे बुद्धिवर्द्धक भी माना जाता है। गोरखमुंडी की गंध बहुत तीखी होती है।
गोरख मुंडी एक वर्षीय, प्रसर वनस्पति है, जो धान के खेतों तथा अन्य नम स्थानों में वर्षा के बाद निकलती है। यह किंचित लसदार, रोमश और गंध युक्त होती है।इसमें कांड पक्षयुक्त, पत्र विनाल, कांडलग्न और प्राय: व्यस्त लट्वाकार और पुष्प सूक्ष्म किरमजीरंग के और मुंडकाकार व्यूह में पाए जाते हैं।
गोरख मुंडी के मूल, पुष्प व्यूह अथवा पंचाग का चिकित्सा में व्यवहार होता है। यह कटुतिक्त, उष्ण, दीपक, कृमिघ्न, मूत्रजनक रसायन और वात तथा रक्त विकारों में उपयोगी मानी जाती है। इसमें कालापन लिए हुए लाल रंग का तेल और कड़वा सत्व होता है।
इसका तेल त्वचा और वृक्क द्वारा नि:सारित होता है, अत: इसके सेवन से पसीने और मूत्र में एक प्रकार की गंध आने लगती है। मूत्रजनक होने और मूत्रमार्ग का शोधन करने के कारण मूत्रेंद्रिय के रोगों में इससे अच्छा लाभ होता है। गर्भाशय,योनि सम्बन्धी अन्य बीमारियों पथरी-पित्त सिर की आधाशीशी आदि में भी यह अत्यन्त लाभकारी औषधि है।


गोरख मुंडी के अद्भुत औषधीय गुण :

1. गोरख मुंडी के चार ताजे फल तोड़कर भली प्रकार चबायें और दो घूंट पानी के साथ इसे पेट में उतार लें तो एक वर्ष तक न तो आंख आएगी और न ही आंखों की रोशनी कमजोर होगी। गोरखमुंडी की एक घुंडी प्रतिदिन साबुत निगलने कई सालों तक आंख लाल नहीं होगी।
2. इसके पत्ते पीस कर मलहम की तरह लेप करने से नारू रोग (इसे बाला रोग भी कहते हैं
यह रोग गंदा पानी पीने से होता है) नष्ट हो जाते हैं।
3. गोरख मुंडी तथा सौंठ दोनों का चूर्ण बराबर-बराबर मात्रा में गर्म पानी से लेने से आम वात की पीड़ा दूर हो जाती है।
4. गोरख मुंडी चूर्ण,घी,शहद को मिलाकर सुबह-शाम सेवन करने से वात रोग समाप्त होते हैं।
5. कुष्ठ रोग होने पर गोरख मुंडी का चूर्ण और नीम की छाल मिलाकर काढ़ा तैयार कीजिए, सुबह-शाम इस काढ़े का सेवन करने से कुष्ठ रोग ठीक हो जाता है।
6. गले के लिए यह बहुत फायदेमंद है, यह आवाज को मीठा करती है।
7. गोरख मुंडी का सुजाक, प्रमेह आदि धातु रोग में सर्वाधिक सफल प्रयोग किया गया है।
8. योनि में दर्द हो, फोड़े-फुन्सी या खुजली हो तो गोरख मुंडी के बीजों को पीसकर उसमें समान मात्रा में शक्कर मिलाकर रख लें और एक बार प्रतिदिन दो चम्मच ठंडे पानी से लेने से इन बीमांरियों में फायदा होता है। इस चूर्ण को लेने से शरीर में स्फूर्ति भी बढ़ती है।
9. गोरख मुंडी का सेवन करने से बाल सफेद नही होते हैं।
10. गोरख मुंडी के पौधे उखाड़कर उनकी सफाई करके छाये में सुखा लें। सूख जाने पर उसे पीस लीजिए और घी चीनी के साथ हलुआ बनाकर खाइए, इससे इससे दिल, दिमाग, लीवर को बहुत शक्ति मिलती है।
11. गोरख मुंडी का काढ़ा बनाकर प्रयोग करने से पथरी की समस्या दूर होती है।
12. पीलिया के मरीजों के लिए भी यह फायदेमंद औषधि है।
13. गोरख मुंडी के पत्ते तथा इसकी जड़ को पीस कर गाय के दूध के साथ लिया जाये तो इससे यौन शक्ति बढ़ती है। यदि इसकी जड़ का चूर्ण बनाकर कोई व्यक्ति लगातार दो वर्ष तक दूध के साथ सेवन करता है तो उसका शरीर मजबूत हो जाता है। गोरख मुंडी का सेवन शहद, दूध मट्ठे के साथ किया जा सकता है।
14. गोरख मुंडी का प्रयोग बवासीर में भी बहुत लाभदायक माना गया है। गोरख मुंडी की जड़ की छाल निकालकर उसे सुखाकर चूर्ण बनाकर हर रोज एक चम्मच चूर्ण लेकर ऊपर से मट्ठे का सेवन किया जाये तो बवासीर पूरी तरह समाप्त हो जाती है। जड़ को सिल पर पीस कर उसे बवासीर के मस्सों में तथा कण्ठमाल की गाठों में लगाने से बहुत लाभ होता है। पेट के कीड़ों में भी इस की जड़ का पूर्ण प्रयोग किया जाता है, उससे निश्चित लाभ मिलता है।
15. गोरख मुंडी एक एसी औषधि है जो आंखो को जरूर शक्ति देती है। अनेक बार अनुभव किया है। आयुर्वेद मे गोरख मुंडी को रसायन कहा गया है। आयुर्वेद के अनुसार रसायन का अर्थ है वह औषधि जो शरीर को जवान बनाए रखे।

गोरख मुंडी से औषिधि बनाने का तरीका :

गोरख मुंडी का पौधा यदि यह कहीं मिल जाए तो इसे जड़ सहित उखाड़ ले। इसकी जड़ का चूर्ण बना कर आधा आधा चम्मच सुबह शाम दूध के साथ प्रयोग करे ।
बाकी के पौधे का पानी मिलाकर रस निकाल ले। इस रस से 25% अर्थात एक चौथाई घी लेकर पका ले। इतना पकाए कि केवल घी रह जाए। यह भी आंखो के लिए बहुत गुणकारी है।
बाजार मे साबुत पौधा या जड़ नहीं मिलती। केवल इसका फल मिलता है। वह प्रयोग करे। 100 ग्राम गोरख मुंडी लाकर पीस ले। बहुत आसानी से पीस जाती है। इसमे 50 ग्राम गुड मिला ले। कुछ बूंद पानी मिलाकर मटर के आकार की गोली बना ले। यह काम लोहे कि कड़ाही मे करना चाहिए । न मिले तो पीतल की ले। यदि वह भी न मिले तो एल्योमीनियम कि ले। जो अधिक गुणकारी बनाना चाहे तो ऐसे करे। 300 ग्राम गोरखमुंडी ले आए। लाकर पीस ले । 100 ग्राम छन कर रख ले। बाकी बची 200 ग्राम गोरख मुंडी को 500 ग्राम पानी मे उबाले। जब पानी लगभग 300 ग्राम बचे तब छान ले। साथ मे ठंडी होने पर दबा कर निचोड़ ले। इस पानी को मोटे तले कि कड़ाही मे डाले। उसमे 100 ग्राम गुड कूट कर मिलाकर धीमा धीमा पकाए। जब शहद के समान गाढ़ा हो जाए तब आग बंद कर दे। जब ठंडा जो जाए तो देखे कि काफी गाढ़ा हो गया है। यदि कम गाढ़ा हो तो थोड़ा सा और पका ले। फिर ठंडा होने पर इसमे 100 ग्राम बारीक पीसी हुई गोरख मुंडी डाल कर मिला ले। अब 50 ग्राम चीनी/मिश्री मे 10 ग्राम छोटी इलायची मिलाकर पीस ले। छान ले। हाथ को जरा सा देशी घी लगा कर मटर के आकार कि गोली बना ले। गोली बना कर चीनी इलायची वाले पाउडर मे डाल दे ताकि गोली सुगंधित हो जाए। 3 दिन छाया मे सुखाकर प्रयोग करे। इलायची केवल खुशबू के लिए है।

सेवन करने का तरीका :

1-1 गोली 2 समय गरम दूध से हल्के गरम पानी से दिन मे 2 बार ले। सर्दी आने पर 2-2 गोली ले सकते हैं। इसका चमत्कार आप प्रयोग करके ही अनुभव कर सकते हैं। आंखे तो ठीक होंगी है रात दिन परिश्रम करके भी थकावट महसूस नहीं होगी। कील, मुहाँसे, फुंसी, गुर्दे के रोग सिर के रोग सभी मे लाभ करेगी। जिनहे पेशाब कम आता है या शरीर के किसी हिस्से से खून गिरता है तो ठंडे पानी से दे। इतनी सुरक्षित है कि गर्भवती को भी दे सकते हैं। ध्यान रहे 2-4 दिन मे कोई लाभ नहीं होगा। लंबे समय तक ले । गोली को अच्छी तरह सूखा ले। अन्यथा अंदर से फफूंद लग जाएगी।

ध्यान रखें ये पाचन शक्ति बढ़ाती है इसलिए भोजन समय पर खाए। चाय पी कर भूख खत्म न करे। चाय पीने से यह दवाई लाभ के स्थान पर हानि करेगी।

मंगलवार, 13 सितंबर 2016

गृहस्थ आश्रम

बह । हमारे समाज में श्रेष्ठ आश्रमों में एक है इसको सबसे उपर श्रेष्ठ श्रेणी में रखा गया है गृहस्थ आश्रम क्या है और यह समाज के सभी आश्रमों मे श्रेष्ठ आश्रम गृहस्थ आश्रम क्यो माना गया है इसपर हम विस्तार पूर्वक निचे चर्चा करते हैं और इसकी विषेशताओ पर विस्तार से जानकारी प्राप्त करते हैं इसका लाभ हमे कैसे प्राप्त होता है तथा इसकी मौलिक अधिकार मे हम रहकर कैसे अपने कर्मों को उच्च तथा भलि भात से परोपकार और हर धर्मों मे इसको उच्च तथा समाजिक एेकता का एक प्रमुख हिस्सा तथा संसार कल्याण का वरदान मानते हैं गृहस्थ जीवन का हिस्सा है यह आश्रम और सभी समाजिक कल्याण तथा संयुक्त परिवार की एक परिभाषा है इस आश्रम पर विस्तार पूर्वक विश्लेषण करते है। हमारे समाज में श्रेष्ठ आश्रमों में एक है इसको सबसे उपर श्रेष्ठ श्रेणी में रखा गया है गृहस्थ आश्रम क्या है और यह समाज के सभी आश्रमों मे श्रेष्ठ आश्रम गृहस्थ आश्रम क्यो माना गया है इसपर हम विस्तार पूर्वक निचे चर्चा करते हैं और इसकी विषेशताओ पर विस्तार से जानकारी प्राप्त करते हैं इसका लाभ हमे कैसे प्राप्त होता है तथा इसकी मौलिक अधिकार मे हम रहकर कैसे अपने कर्मों को उच्च तथा भलि भात से परोपकार और हर धर्मों मे इसको उच्च तथा समाजिक एेकता का एक प्रमुख हिस्सा तथा संसार कल्याण का वरदान मानते हैं गृहस्थ जीवन का हिस्सा है यह आश्रम और सभी समाजिक कल्याण तथा संयुक्त परिवार की एक परिभाषा है इस आश्रम पर विस्तार पूर्वक विश्लेषण करते है।
गृहस्थ आश्रम - गृहस्थ आश्रम परिवार के कल्याण के साथ हमारे जीवन निर्वाह के कारक सभी परिवारों का एक समूह व सभी कार्य सभी का कल्याण के लिए हमारे समाज को बनाने में सभी दुखों का उपाय तथा संयुक्त परिवार का संरक्षण तथा सभी क्रम सभी कृया धर्म परोपकार दया दान धार्मिकता समाज कल्याण दुख सुख हिम्मत भलाई कठिनाइयों का सामना करना सुखो का आभाष तथा मोक्ष की प्राप्ति कर्मो का उत्थान जीवन जीने की कला हम और हमारा समाज इत्यादि आदि सभी प्रकार के कर्मो का ही आश्रमों ही गृहस्थ आश्रम कहलाता है
गृहस्थ जीवन - गृहस्थ जीवन का निर्वाह जीवन यापन करने की कला हम और परिवार की तरक्की समाज का उदय इसी से बना हुआ है गृहस्थ जीवन में कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है सुख दुःख का आभास होता है यह परिवार के प्रति रुचिकर होकर उनका पालन पोषण तथा उनके साथ मिलकर कठिनाइयों का सामना करने के लिए हमें गृहस्थ जीवन में ही मिलता है इसके प्रति हमारा नुकसान फायदा सभी प्रकार की विपत्तियों का सामना करना पड़ता है और उससे संघर्ष करना पड़ता है परिवार का पालन करने के लिए हमें स्वस्थ रहने के लिए सभी प्रकार के भुख प्यास के लिए तत्पर रहना पड़ता है और उसकी कमियों को पूरा करने के लिए हमें संघर्षरत रहना पड़ता है इसमे दया धार्मिक विश्वास दान विश्वास के साथ समाजिक कार्यरत रहना पड़ता है और वह किसी भी स्थिति में सुधार के लिए हर प्रयत्न करना पड़ता है हमारे समाजिक परिवारिक गतिविधियों का ग्यान करते हुए उसके हर सदस्य को एकसुत्र धागे में बाधना पडता है गृहस्थ जीवन जहाँ हमे दुखों का सामना सुखों की अनुभूति होती है तथा कठीन से कठीन समय का सामना करना पड़ता है उससे सभी को उभारते हुए उसका सामना करना पड़ता है यह जीवन सुखमय और दुखमय कि आनुभुति करता है यही है गृहस्थ जीवन
समाज - समाज की स्थापना भी यही से शुरू हुई और हमारे द्वारा संचालित करने के लिए हर ब्यवस्थित समारोह हो या प्रजा तन्त्र हो जो यही से शुरू होती है समाज समूहों को कहते हैं तो प्रथम तो परिवार ही समाज है और यह इसकी सिढी है जहां से हम चढकर पूरे समाज की स्थापना होती है
लाभ - पुरुषार्थ, धर्म, अर्थ, काम, क्रोध, लोभ, मोह, मोक्ष, ईश्वर, देश, काल, और हमारे कर्म, साधना, ज्ञान, विवाह, सांस्कृति रहन सहन, समाजिक स्थापना, इत्यादि, 
लाभ - गृहस्थ जीवन में जीवन जीने की कला प्राप्त होती है तथा समय का सदुपयोग कर जीवन को कैसे बदलाव लाने के लिए हमें इसी मे रहकर जीवन के प्रति हर पहलू पर उतार चढ़ाव के साथ हमे ज्ञान और मनुष्य का कर्तव्य का आनन्द आभास होता है तथा जन समुदाय का ज्ञान होता है इसके साथ ही प्यार दुलार मनुष्यता पर गर्व महसूस यही से होता है इसमें त्याग और परिश्रम का आभास होता है कैसे सबको संयोजा जाता है और उसका निर्वाह कैसे किया जाता है सभी प्रकार से मनुष्यी ज्ञान यही से प्राप्त होता है।
धर्म - धर्म का अर्थ होता है जिवन के नियामतक तत्व हमारे रहन सहन रिति रिवाज से धर्म परिभाषित होता है हमारे संस्कृति हमारे संस्कार जो धर्म से परिभाषित होते हैं। जहां हमारे समाज में बहुत से धर्म है पुरे संसार में हर जगह हर देश का अलग अलग धर्म है लेकिन धर्म चाहे जो भी हो लेकिन सिखने को यही गृहस्थ जीवन से ही मिलता है पैदा होने के साथ जब हमे ज्ञान होता है कि हम मनुष्य जाति है और हमारा समाज धर्म क्या है ये सब बातें हमें यही से पता चलताी है तथा इसका ज्ञान होता है
काम -काम का अर्थ होता है जिवन की वैध कामनाएं हरेक मनुष्य के अन्दर रागात्मक प्रवृत्ति की संज्ञा काम है हिन्दू वैदिक पुराण के अनुसार काम सृष्टि के पूर्व मे जो एक अविभक्त तत्व था वह विश्ववरचना के लिए दो विरोधी भावो में आ गया इसी को भारतीय विश्वास मे यो कहा जाता है कि आरम्भ में प्रजापति अकेला था उसका मन नही लगा उसने अपने शरीर के दो भाग मे लिया वह आधे भाग स्त्री और आधे भाग पुरुष बन गया तब उसने आनंद का अनुभव किया वहीं से इसकी एक संज्ञा हमने आप को दी लेकिन जो भी इतिहास रहा हो सभी का ज्ञान हमे इसी गृहस्थ आश्रम या गृहस्थ जीवन में ही मिलती है हिन्दू वैदिक काल में इसका पूरा वर्णन किया गया है कि पारस्परिक आकर्षण ही काम का वास्तविक स्वरूप है प्राकृतिक रचनाओं में प्रत्येक स्त्री के भितर पुरुष की सत्ता है और प्रत्येक पुरुष के भितर स्त्री की सत्ता है ऋग्वेद मे इस तत्व की इसपष्ट स्वीकृति दी गयी है इस तत्व को अर्वाचीन मनोविज्ञान शास्त्री भी मानते हैं जो भी परिभाषित हो तथ्य यही जो भी काम का ज्ञान हमे होता है सब इसी गृहस्थ जीवन में ही होता है
अर्थ - अर्थ का मतलब होता है जीवन के भौतिक साधन अर्थ का अनर्थ हो गया है सही को गलत बताया है सभी प्रकार के परिभाषित शब्द का एक अर्थ होता है या यू कहे जीवन जीने का अर्थ क्या है और हम अपने उद्देश्य का क्या परिभाषित करना चाहते हैं हमारे जीवन की पद्धति को कैसे जीते हैं और उसका मतलब क्या है उसी को अर्थ से परिभाषित कर सकते हैं जहा भी हमे बदलाव की जरूरत होती है उसका भी एक अर्थ होता है कि किस लिये हमे बदलाव की जरूरत पडी जो भी
हो सभी को अपने जीवन का एक उद्देश्य और उसका अर्थ होना चाहिए जो कुछ अर्थ से सम्बंधित है जिसका ज्ञान हमे इसी गृहस्थ जीवन में होता है
धर्म - धर्म का अर्थ है जीवन के नियमों का तत्व ही धर्म से परिभाषित होता है
क्रोध - क्रोध मनुष्य जाति की सबसे कमजोर प्रवृति है जहा हमे इससे दुस परिणामों का सामना करना पड़ता है वही इससे हमारे सेहत पर प्रभाव पडता है क्रोध का कारण अपनी कमजोरी है जो अपने कर्तव्यो का निर्वाह नहीं करते हैं और अपनी प्रतिक्रियाएं को या जिम्मेदारीयो को दूसरे पर ठोकते है क्रोध का कारण बन जाती है जो भी हो क्रोध हमे अपनी जिम्मेदारीयो के द्वारा उसका निर्वाह के प्रति इसी आश्रम का ही दायित्व रूप है जो गृहस्थ जीवन की देन है।
लोभ - लोभ भी यही से परिभाषित होती है लोभ जो परिवारिक जिम्मेदारी से आता है क्रोध हमे अपनी जिम्मेदारीयो के द्वारा उसका निर्वाह के प्रति इसी आश्रम का ही दायित्व रूप है जो गृहस्थ जीवन की देन है। मन निरमुल आशंकाऔ से घिरा रहता है कि हमारे शरीर के भौतिक सुख की प्राप्ति की कामना के साथ हर भौतिक सुविधाओं का हम अधिक से अधिक भोग करना चाहते हैं जिसके कारण हमे लोभ की उपज होती है और यह आज के दौर में परिवारिक सुख सुविधाओं की देन है परिवार की आकांक्षाओं को पूर्ण करना लोभ की एक मनोदशा है
मोह माया - मोह माया की उपज भी इसी गृहस्थ जीवन में उपज होती है और उसका परिवारिक सम्बन्ध है मोह हमारे जीवन में तब पाया जाता है जहा एक सूली की प्यार की उत्पत्ति हुई जहां अपना पराया का आभास हुआ जहां अपने भौतिक सुखो का उपयोग हुआ मन की जिज्ञासा को शांति नही मिली और उसको और बढाया जहां पति-पत्नी परिवार माता पिता औलाद स्त्रियां सभी के प्रति प्यार की उपज मोह माया है जो परिवारजनों के प्रति उनको सुख सुविधाओं का प्रदान करना है इश्वर रूपी मे जहा मोह माया को मोक्ष के लिए प्रबंधित किया है वही इसको कारण भी माना है मोह जहां आता है वहा भौतिक सच का कारण होता है आज के इस दौर में जहां भौतिकवाद हमें जकड़ रखा है और इसके प्रति हमारी जिज्ञासा और फैल रही है सांसारिक संसाधन जहाँ मोह को अपने मजबूत बनाने मे लगा है वही हम पुराने समय का जीवन स्तर को छोडते जा रहे हैं अपनी संस्कार को पिछे छोडते जा रहे हैं इन्सान की काम  लालसा दैत्यिक रूप लेता जा रहा है भौतिक हम पर भारी होता जा रहा है जो न सिर्फ हमारे वाद को खत्म कर रहा है बल्कि हमारे अन्तर आत्मा को भी व्यक्त विभक्त कर रहा है इसी परिवारिक का एक प्रमुख हिस्सा है मोह माया जो गृहस्थ आश्रम में एक लालच की वजह और भौतिक सुख सुविधाओं का कारण बन गया है जो हमें इसी गृहस्थ जीवन में प्राप्त होता है
मोक्ष - मोक्ष का अर्थ होता है सभी प्रकार के बन्धन से मुक्ति ही मोक्ष की प्राप्ति होती है इसका ज्ञान गृहस्थ जीवन में रहते हुए ही हमे इसका ज्ञान होता है और हम इस परिवारिक तथा समाजिक बन्धनो से मुक्त होकर मोक्ष की प्राप्ति होगी लेकिन हमारे मोक्ष को हमारे कर्त्तव्य के आधार पर मिलनी चाहिए इस लिए हमारे पुराणों में कुछ तथ्य दिये गये हैं कि मानव जाति सभी जातियों के कर्मो के आधार पर ही फल मिलते हैं तो कर्म ही मनुष्य का वह मार्ग है जहाँ से हमे मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है और इंसान बुरा भला करने परोपकार करने सत्य का निवारण करने अपने को सही रास्ते द्वारा इश्वर के प्रति रुचिकर होकर पुरुषोत्तम मर्यादाओं के नियमों के पालन करके अहम को त्याग कर इंसान की भलाई करके अपने कर्मो को अच्छा बनाता है और उसे फल के प्राप्ति के बिना हमेशा सच्चा ओर सदा अग्रसर रहता है जैसे कि हमारे गीता उपदेश मे कहा गया है कि कर्म करो फल की चिंता मत करो फल तो अपने आप मिलते रहेगे और केवल तुम अपना कर्म करते जाओ इसी प्रकार सत्य के साथ आपको सही उपयोग कर अपने आप ही ईश्वरीय मोक्ष को प्राप्त होगा जो गृहस्थ आश्रम में या गृहस्थ जीवन में अपने जिम्मेदारीयो का सत्य के साथ निर्वाह करता है उसको सब प्रकार के मोक्ष की प्राप्ति होती है
ईश्वर या प्रभु भगवान - इश्वर के रूप के बारे में अनेक ऐसी धारणाए है जो भगवान के अलग अलग रुपो को प्रदर्शित करती है लेकिन सब का एक ही सत्य है कि इस जगत को उसी के द्वारा रचा गया जहां हमे इस बात के लिए हमें अलग अलग धारणाओ के आधार पर इस बात को सत्यापित करने के लिए सभी धर्मो की गहराई तक जा कर उसकी ब्याखान करेगे तो एक ही परिणाम मिलते हैं कि इश्वर जगत ब्यापत है इश्वर के रूप अलग अलग परिभाषित हुए हैं कही इश्वर को आकार रुप दिया गया कही इनके रुपो को अलौकिक कहा गया कही इनको जगत के कण ब्यापत माना गया लेकिन धारणाए जो भी हो सब का विश्वास प्रभु के उपर है आज के इस युग में जहां विज्ञान हमे कुछ ऐसी होनी को परिभाषित नही कर पाया है कि जो इतिहास है उसका वास्तविक परिणाम था या है वह उस तक नही पहुंच सकता जैसे कई बार पृथ्वी का डगमगाने का उसके होने का अनुमान बस लगाता है भुक्म्म की स्थिति को वह रोक नही सकता मनुष्य के मृत्यु पर विजय प्राप्त नही कर सकता है जो न सिर्फ हमारे मन को परिमाणित करता है वरन यह क्षैतिज के धरा पर कुछ यैसी प्रतिक्रियाएं है जो वह चाह कर भी वह वहा तक नही पहुंच सकता है हिन्दू धर्म के अनुसार जगत ब्याप्त इश्वर के अनेक रूप है वह जगत के हर कण कण मे बसा है और उसके बिना पत्ता भी नही हिल सकता है सृष्टि रचियता पालन करता व उसका अन्त रुप देना यह सब ईश्वरीय कारक है इश्वर के रूप को सिद्ध करना है तो इसमे इस बात की पुष्टि करनी होगी कि क्यू नहीं माने जो है या नही इसको क्या हमारे विज्ञान युग सिद्ध कर पाये हैं और क्या उनकी पकड इस सृष्टि पर हो गयी है हमारे जीवन की पद्धति इस शरीर मे विद्वमान है मनुष्य का दिमाग ब्रह्माण्ड है जो कुछ वह करता है और वह जो कुछ खोज करता है वह इसी की उपज है शरीर की क्रिया तरल पदार्थ के वजह से है उसी के द्वारा संचालित होती है वह दृष्टि से देखता है और जो वह नही देख पाता उसे वह जानता भी नही और मानता भी नही तो क्या हम जहाँ तक देखते हैं वही सत्य है और बाकी कुछ नहीं है ईश्वर के प्रति हमारे अर्थ शास्त्री हो या मनोवैज्ञानिक हो या समाज शास्त्री हो या दर्शन शास्त्री हो सब के अलग अलग तौर पर रास्ते बताये गये हैं और वह किसी भी स्थिति को नियंत्रित निर्देश माध्यम दिये हैं लेकिन हमारी संस्कृति हो या विरासत में दी गयी परिभाषाएं हो सब की एक ही बात उतपन्न की स्थिति है वह है ईश्वर तो ईश्वर एक शब्द नही हो सकता है जो पुरे संसार में हर धर्म हर संस्कृतिकर्मी मे बसा पडा है यह आज नहीं वरन कई युगों से हमारे हर शब्द मे आता है और आता रहेगा दिन रात पृथ्वी का घुमना चक्कर लगाने का कारण क्या है और वह क्यू है जल थल आकाश वायु धरा की उत्पत्ति कैसे हुई और क्यू हुया संसार में मनुष्य बनाया स्त्रियों को क्यू बनाया कैसे बना पशु पक्षी जिव जन्तु हर कण क्यू बनाया जहां तक विज्ञान का परिभाषित परिणाम हमको सिद्ध नही कर पाए कुछ उदाहरण के द्वारा केवल अनुमानित है तो अनुमान क्या वह तो एक मस्तिष्क की उपज है और कुछ नहीं हर प्राणी का निरन्तर कण ब्याप्त अग्रसर होता रहता है कुछ ऐसी मृत्यु कोशिकाओं है जिनका विकास होता रहता है और वह हमेशा से है और उनकी पकड जगत ब्याप्त ईश्वर नियम से है जो सदा ही ब्याप्त कर विस्तारित है उनका होना कोई संयोग नही है और वह संयोग हो ही नहीं सकता जिसका ईश्वरीय कारक है
ईश्वर की परिभाषा जो भी दी गई है और कारक जो भी रहा हो इसका ज्ञान का कारण हमे गृहस्थ आश्रम में ही मिलता है और इसकी उपज हमे गहन चिंतन की स्थिति को पैदा करती है गृहस्थ आश्रम या गृहस्थ जीवन में ही प्राप्त होता है।
देश संसार -  सर्व प्रथम गृहस्थ जीवन के आधार पर समाज और समाज के आधार पर देश बनता है और देश से संसार बनता है तो सर्व प्रिय गृहस्थ जीवन के ही द्वारा संचालित हर प्रकार है
गृहस्थ जीवन को सबसे ऊपर रखते हुए हर कर्मो की शुरुआत होती है गृहस्थ जीवन के आधार पर ही हमे हर परिणाम हासिल होते हैं इसी के द्वारा हमारे कर्मो का फल मिलता है और मोक्ष की प्राप्ति के लिए रास्ता मिलता है तो सभी ब्यवसथित व अब्यवस्थित सभी प्रकार गृहस्थ जीवन के द्वारा संचालित होते हैं
अन्त में सिद्ध करने के लिए हम इस निश्चित रूप से इस निष्कर्ष पर पहुंचे है कि गृहस्थ जीवन हमारी चाभी है जहा से हमे चलने की सिढी है। मन निरमुल आशंकाऔ से घिरा रहता है हर स्थिति उसे अपने साथ ले जाना चाहते हैं और हमारा जीवन जीने की कला हम और हमारा समाज के लिए अन्त का परिणाम यही है कि गृहस्थ जीवन प्रथम पथ है और उसपे चल कर हम हर मार्ग तक पहुचेगे।

रविवार, 18 अक्तूबर 2015

स्वर-साधना का ज्ञान
परिचय-
जिस तरह वायु का बाहरी उपयोग है वैसे ही उसका आंतरिक और सूक्ष्म उपयोग भी है। जिसके विषय में जानकर कोई भी प्रबुद्ध व्यक्ति आध्यात्मिक तथा सांसरिक सुख और आनंद प्राप्त कर सकता है। प्राणायाम की ही तरह स्वर विज्ञान भी वायुतत्व के सूक्ष्म उपयोग का विज्ञान है जिसके द्वारा हम बहुत से रोगों से अपने आपको बचाकर रख सकते हैं और रोगी होने पर स्वर-साधना की मदद से उन रोगों का उन्मूलन भी कर सकते हैं। स्वर साधना या स्वरोदय विज्ञान को योग का ही एक अंग मानना चाहिए। ये मनुष्य को हर समय अच्छा फल देने वाला होता है, लेकिन ये स्वर शास्त्र जितना मुश्किल है, उतना ही मुश्किल है इसको सिखाने वाला गुरू मिलना। स्वर साधना का आधार सांस लेना और सांस को बाहर छोड़ने की गति स्वरोदय विज्ञान है। हमारी सारी चेष्टाएं तथा तज्जन्य फायदा-नुकसान, सुख-दुख आदि सारे शारीरिक और मानसिक सुख तथा मुश्किलें आश्चर्यमयी सांस लेने और सांस छोड़ने की गति से ही प्रभावित है। जिसकी मदद से दुखों को दूर किया जा सकता है और अपनी इच्छा का फल पाया जाता है।
प्रकृति का ये नियम है कि हमारे शरीर में दिन-रात तेज गति से सांस लेना और सांस छोड़ना एक ही समय में नाक के दोनो छिद्रों से साधारणत: नही चलता। बल्कि वो बारी-बारी से एक निश्चित समय तक अलग-अलग नाक के छिद्रों से चलता है। एक नाक के छिद्र का निश्चित समय पूरा हो जाने पर उससे सांस लेना और सांस छोड़ना बंद हो जाता है और नाक के दूसरे छिद्र से चलना शुरू हो जाता है। सांस का आना जाना जब एक नाक के छिद्र से बंद होता है और दूसरे से शुरू होता है तो उसको `स्वरोदय´ कहा जाता है। हर नथुने में स्वरोदय होने के बाद वो साधारणतया 1 घंटे तक मौजूद रहता है। इसके बाद दूसरे नाक के छिद्र से सांस चलना शुरू होता है और वो भी 1 घंटे तक रहता है। ये क्रम रात और दिन चलता रहता है।
जानकारी-
जब नाक से बाएं छिद्र से सांस चलती है तब उसे `इड़ा´ में चलना अथवा `चंद्रस्वर´ का चलना कहा जाता है और दाहिने नाक से सांस चलती है तो उसे `पिंगला´ में चलना अथवा `सूर्य स्वर´ का चलना कहते हैं और नाक के दोनो छिद्रों से जब एक ही समय में बराबर सांस चलती है तब उसको `सुषुम्ना में चलना कहा जाता है।
स्वरयोग-
योग के मुताबिक सांस को ही स्वर कहा गया है। स्वर मुख्यत: 3 प्रकार के होते हैं-
चंद्रस्वर-
जब नाक के बाईं तरफ के छिद्र से सांस चल रही हो तो उसको चंद्रस्वर कहा जाता है। ये शरीर को ठंडक पहुंचाता है। इस स्वर में तरल पदार्थ पीने चाहिए और ज्यादा मेहनत का काम नही करना चाहिए।
सूर्यस्वर-
जब नाक के दाईं तरफ के छिद्र से सांस चल रही हो तो उसे सूर्य स्वर कहा जाता है। ये स्वर शरीर को गर्मी देता है। इस स्वर में भोजन और ज्यादा मेहनत वाले काम करने चाहिए।
स्वर बदलने की विधि-
नाक के जिस तरफ के छिद्र से स्वर चल रहा हो तो उसे दबाकर बंद करने से दूसरा स्वर चलने लगता है।
जिस तरफ के नाक के छिद्र से स्वर चल रहा हो उसी तरफ करवट लेकर लेटने से दूसरा स्वर चलने लगता है।
नाक के जिस तरफ के छिद्र से स्वर चलाना हो उससे दूसरी तरफ के छिद्र को रुई से बंद कर देना चाहिए।
ज्यादा मेहनत करने से, दौड़ने से और प्राणायाम आदि करने से स्वर बदल जाता है। नाड़ी शोधन प्राणायाम करने से स्वर पर काबू हो जाता है। इससे सर्दियों में सर्दी कम लगती है और गर्मियों में गर्मी भी कम लगती है।
स्वर ज्ञान से लाभ-
जो व्यक्ति स्वर को बार-बार बदलना पूरी तरह से सीख जाता है उसे जल्दी बुढ़ापा नही आता और वो लंबी उम्र भी जीता है।
कोई भी रोग होने पर जो स्वर चलता हो उसे बदलने से जल्दी लाभ होता है।
शरीर में थकान होने पर चंद्रस्वर (दाईं करवट) लेटने से थकान दूर हो जाती है।
स्नायु रोग के कारण अगर शरीर मे किसी भी तरह का दर्द हो तो स्वर को बदलने से दर्द दूर हो जाता है।
दमे का दौरा पड़ने पर स्वर बदलने से दमे का दौरा कम हो जाता है। जिस व्यक्ति का दिन में बायां और रात में दायां स्वर चलता है वो हमेशा स्वस्थ रहता है।
गर्भधारण के समय अगर पुरुष का दायां स्वर और स्त्री का बायां स्वर चले तो उस समय में गर्भधारण करने से निश्चय ही पुत्र पैदा होता है।
जानकारी-
प्रकृति शरीर की जरूरत के मुताबिक स्वरों को बदलती रहती है। अगर जरूरत हो तो स्वर बदला भी जा सकता है।
वाम स्वर
परिचय-
जिस समय व्यक्ति का बाईं तरफ का स्वर चलता हो उस समय स्थिर, सौम्य और शांति वाला काम करने से वो काम पूरा हो जाता है जैसे- दोस्ती करना, भगवान के भजन करना, सजना-संवरना, किसी रोग की चिकित्सा शुरू करना, शादी करना, दान देना, हवन-यज्ञ करना, मकान आदि बनवाना शुरू करना, किसी यात्रा की शुरूआत करना, नई फसल के बीज बोना, पढ़ाई शुरू करना आदि।
दक्षिण स्वर
परिचय-
जिस समय व्यक्ति का दाईं तरफ का स्वर चल रहा हो उस समय उसे काफी मुश्किल, गुस्से वाले और रुद्र कामों को करना चाहिए जैसे- किसी चीज की सवारी करना, लड़ाई में जाना, व्यायाम करना, पहाड़ पर चढ़ना, स्नान करना और भोजन करना आदि।
सुषुम्ना
परिचय-
जिस समय नाक के दोनों छिद्रों से बराबर स्वर चलते हो तो इसे सुषुम्ना स्वर कहते हैं। उस समय मुक्त फल देने वाले कामों को करने से सिद्धि जल्दी मिल जाती है जैसे- धर्म वाले काम में भगवान का ध्यान लगाना तथा योग-साधना आदि करने चाहिए।
विशेष-
जो काम `चंद्र और `सूर्य´ नाड़ी में करने चाहिए उन्हे `सुषुम्ना´ के समय बिल्कुल भी न करें नही तो इसका उल्टा असर पड़ता है।
स्वर चलने का ज्ञान
परिचय-
अगर कोई व्यक्ति जानना चाहता है कि किस समय कौन सा स्वर चल रहा है तो इसको जानने का तरीका बहुत आसान है। सबसे पहले नाक के एक छिद्र को बंद करके दूसरे छिद्र से 2-4 बार जोर-जोर से सांस लीजिए। फिर इस छिद्र को बंद करके उसी तरह से दूसरे छिद्र से 2-4 बार जोर-जोर से सांस लीजिए। नाक के जिस छिद्र से सांस लेने और छोड़ने में आसानी लग रही हो समझना चाहिए कि उस तरफ का स्वर चल रहा है और जिस तरफ से सांस लेने और छोड़ने मे परेशानी हो उसे बंद समझना चाहिए।
इच्छा के मुताबिक सांस की गति बदलना
परिचय-
अगर कोई व्यक्ति अपनी मर्जी से अपनी सांस की चलने की गति को बदलना चाहता है तो इसकी 3 विधियां है-
सांस की गति बदलने की विधि-
नाक के जिस तरफ के छेद से सांस चल रही हो, उसके दूसरी तरफ के नाक के छिद्र को अंगूठे से दबाकर रखना चाहिए तथा जिस तरफ से सांस चल रही हो वहां से हवा को अंदर खींचना चाहिए। फिर उस तरफ के छिद्र को दबाकर नाक के दूसरे छिद्र से हवा को बाहर निकालना चाहिए। कुछ देर तक इसी तरह से नाक के एक छिद्र से सांस लेकर दूसरे से सांस निकालने से सांस की गति जरूर बदल जाती है।
जिस तरफ के नाक के छिद्र से सांस चल रही हो उसी करवट सोकर नाक के एक छिद्र से सांस लेकर दूसरे से छोड़ने की क्रिया को करने से सांस की गति जल्दी बदल जाती है।
नाक के जिस तरफ के छिद्र से सांस चल रही हो सिर्फ उसी करवट थोड़ी देर तक लेटने से भी सांस के चलने की गति बदल जाती है।
प्राणवायु को सुषुम्ना में संचारित करने की विधि :
परिचय-
प्राणवायु को सुषुम्ना नाड़ी में जमा करने के लिए सबसे पहले नाक के किसी भी एक छिद्र को बंद करके दूसरे छिद्र से सांस लेने की क्रिया करें और फिर तुरंत ही बंद छिद्र को खोलकर दूसरे छिद्र से सांस को बाहर निकाल दीजिए। इसके बाद नाक के जिस तरफ के छिद्र से सांस छोड़ी हो, उसी से सांस लेकर दूसरे छिद्र से सांस को बाहर छोड़िये। इस तरह नाक के एक छिद्र से सांस लेकर दूसरे से सांस निकालने और फिर दूसरे से सांस लेकर पहले से छोड़ने से लगभग 50 बार में प्राणवायु का संचार `सुषुम्ना´ नाड़ी में जरूर हो जाएगा।
स्वर साधना का पांचो तत्वों से सम्बंध
परिचय-
हमारे शरीर को बनाने में जो पांच तत्व (आकाश, पृथ्वी, वायु, अग्नि, जल) होते हैं उनमें से कोई ना कोई तत्व हर समय स्वर के साथ मौजूद रहता है। जब तक स्वर नाक के एक छिद्र से चलता रहता है, तब तक पांचो तत्व 1-1 बार उदय होकर अपने-अपने समय तक मौजूद रहने के बाद वापिस चले जाते हैं।
स्वर के साथ तत्वों का ज्ञान
परिचय-
स्वर के साथ कौन सा तत्व मौजूद होता है, ये किस तरह कैसे जाना जाए पंचतत्वों का उदय स्वर के उदय के साथ कैसे होता है और उन्हे कैसे जाना जा सकता है। इसके बहुत से उपाय है, लेकिन ये तरीके इतने ज्यादा बारीक और मुश्किल होते हैं कि कोई भी आम व्यक्ति बिना अभ्यास के उन्हे नही जान सकता।
जैसे-
नाक के छिद्र से चलती हुई सांस की ऊपर नीचे तिरछे बीच में घूम-घूमकर बदलती हुई गति से किसी खास तत्व की मौजूदगी का पता लगाया जा सकता है।
हर तत्व का अपना एक खास आकार होता है। इसलिए निर्मल दर्पण पर सांस को छोड़ने से जो आकृति बनती है उस आकृति को देखकर उस समय जो तत्व मौजूद होता है, उसका पता चल जाता है।
शरीर में स्थित अलग-अलग चक्रों द्वारा किसी खास तत्व की मौजूदगी का पता लगाया जाता है।
हर तत्व का अपना-अपना एक खास रंग होता है। इससे भी तत्वों के बारे में पता लगाया जा सकता है।
हर तत्व का अपना एक अलग स्वाद होता है। उसके द्वारा भी पता लगाया जा सकता है।
सुबह के समय तत्व के क्रम द्वारा नाक के जिस छिद्र से सांस चलती हो उसमे साधारणत: पहले वायु, फिर अग्नि, फिर पृथ्वी इसके बाद पानी और अंत में आकाश का क्रमश: 8, 12, 20, 16 और 4 मिनट तक उदय होता है।
जानकारी-
तत्वों के परिमाण द्वारा भी किसी तत्व की स्वर के साथ मौजूदगी का पता लगाया जा सकता है। इसका तरीका ये है कि बारीक हल्की रुई लेकर उसे जिस नाक के छिद्र से सांस चल रही हो, उसके पास धीरे-धीरे ले जाइए। जहां पर पहले-पहले रुई हवा की गति से हिलने लगे वहां पर रुक जाए और उस दूरी को नाप लीजिए। यदि वो दूरी कम से कम 12 उंगली की निकले तो पृथ्वी तत्व 16 अंगुल है, जल तत्व 4 अंगुल है, अग्नि तत्व 8 अंगुल है और वायु तत्व 20 अंगुल है तो आकाश तत्व की मौजूदगी समझनी चाहिए।
स्वर साधना के चमत्कार और उससे स्वास्थ्य की प्राप्ति
परिचय-
असल जिंदगी मे स्वर की महिमा बहुत ही ज्यादा चमत्कारिक है। इसके कुछ सरल प्रयोग नीचे दिये जा रहे हैं।
जानकारी-
सुबह उठने पर पलंग पर ही आंख खुलते ही जो स्वर चल रहा हो उस ओर के हाथ की हथेली को देखें और उसे चेहरे पर फेरते हुए भगवान का नाम लें। इसके बाद जिस ओर का स्वर चल रहा हो उसी ओर का पैर पहले बिस्तर से नीचे जमीन पर रखें। इस क्रिया को करने से पूरा दिन सुख और चैन से बीतेगा।
अगर किसी व्यक्ति को कोई रोग हो जाए तो उसके लक्षण पता चलते ही जो स्वर चलता हो उसको तुरंत ही बंद कर देना चाहिए और जितनी देर या जितने दिनो तक शरीर स्वस्थ न हो जाए उतनी देर या उतने दिनो तक उस स्वर को बंद कर देना चाहिए। इससे शरीर जल्दी ही स्वस्थ हो जाता है और रोगी को ज्यादा दिनों तक कष्ट नही सहना पड़ता।
अगर शरीर में किसी भी तरह की थकावट महसूस हो तो दाहिने करवट सो जाना चाहिए, जिससे `चंद्र´ स्वर चालू हो जाता है और थोड़े ही समय में शरीर की सारी थकान दूर हो जाती है।
स्नायु रोग के कारण अगर शरीर के किसी भाग में किसी भी तरह का दर्द हो तो दर्द के शुरू होते ही जो स्वर चलता हो, उसे बंद कर देना चाहिए। इस प्रयोग को सिर्फ 2-4 मिनट तक ही करने से रोगी का दर्द चला जाता है।
जब किसी व्यक्ति को दमे का दौरा पड़ता है उस समय जो स्वर चलता हो उसे बंद करके दूसरा स्वर चला देना चाहिए। इससे 10-15 मिनट में ही दमे का दौरा शांत हो जाता है। रोजाना इसी तरह से करने से एक महीने में ही दमे के दौरे का रोग कम हो जाता है। दिन में जितनी भी बार यह क्रिया की जाती है, उतनी ही जल्दी दमे का दौरा कम हो जाता है।
जिस व्यक्ति का स्वर दिन में बायां और रात मे दायां चलता है, उसके शरीर में किसी भी तरह का दर्द नही होता है। इसी क्रम से 10-15 दिन तक स्वरों को चलाने का अभ्यास करने से स्वर खुद ही उपर्युक्त नियम से चलने लगता है।
रात को गर्भाधान के समय स्त्री का बांया स्वर और पुरुष का अगर दायां स्वर चले तो उनके घर में बेटा पैदा होता है तथा स्त्री-पुरुष के उस समय में बराबर स्वर चलते रहने से गर्भ ठहरता नही है।
जिस समय दायां स्वर चल रहा हो उस समय भोजन करना लाभकारी होता है। भोजन करने के बाद भी 10 मिनट तक दायां स्वर ही चलना चाहिए। इसलिए भोजन करने के बाद बायीं करवट सोने को कहा जाता है ताकि दायां स्वर चलता रहे। ऐसा करने से भोजन जल्दी पच जाता है और व्यक्ति को कब्ज का रोग भी नही होता। अगर कब्ज होता भी है तो वो भी जल्दी दूर हो जाता है।
किसी जगह पर आग लगने पर जिस ओर आग की गति हो उस दिशा में खड़े होकर जो स्वर चलता हो, उससे वायु को खींचकर नाक से पानी पीना चाहिए। ऐसा करने से या तो आग बुझ जाएगी या उसका बढ़ना रुक जाएगा।
जने स्वर विज्ञान का मर्म
अखण्ड ज्योति Dec 1999 | View Scanned Copy | | Report Discrepancies
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स्वर योग शरीर क्रियाओं को संतुलित और स्थिर रखने की एक प्राचीन विधा है। इससे स्वस्थता को अक्षुण्ण बनाए रखना सरल -संभव हो जाता है। योग के आचार्यों के अनुस्वार यह एक विशुद्ध विज्ञान है, जो यह बतलाता है कि निखिल ब्रह्माण्ड में संव्याप्त भौतिक शक्तियों से मानव शरीर किस प्रकार प्रभावित होता है। सूर्य, चंद्र अथवा अन्यान्य ग्रहों की सूक्ष्म रश्मियों द्वारा शरीरगत परमाणुओं में किस प्रकार की हलचल उत्पन्न होती है। काया की जब जैसी स्थिति हो, तब उससे वैसा ही काम लेना चाहिए-यही स्वर योग का गढ़ रहस्य है। इतना होते हुए भी यह मनुष्य की सृजन शक्ति में हस्तक्षेप नहीं करता, वरन् उसे प्रोत्साहित ही करता है।
स्वरशास्त्र के अनुसार प्राण के आवागमन के मार्गों को नाड़ी कहते हैं। शरीर में ऐसी नाड़ियों की संख्या 72000 है। इनको नसें न समझना चाहिए। यह प्राणचेतना प्रवाहित होने के सूक्ष्मतम पथ हैं नाभि में इस प्रकार की नाड़ियों का एक गुच्छक है। इसमें इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना, गाँधारी, हस्तिजिह्वा, पूषा यशस्विनी, अलंबुसा, कुहू तथा शंखिनी नामक दस नाड़ियाँ हैं। यह वहाँ से निकलकर देह के विभिन्न हिस्सों में चली जाती हैं। इनमें से प्रथम तीन को प्रमुख माना गया हैं। स्वर योग में इड़ा को चंद्र नाड़ी या चंद्र स्वर भी कहते हैं। यह बायें नथुने में है पिंगला को सूर्य नाड़ी अथवा सूर्य कहा गया है। यह दायें नथुने में है। सुषुम्ना को ‘वायु’ कहते हैं जो दोनों नथुनों के मध्य स्थित है। जिस प्रकार संसार में सूर्य और चंद्र नियमित रूप से अपना-अपना कार्य नियमित रूप से करती हैं। शेष अन्य नाड़ियाँ भी भिन्न-भिन्न अंगों में प्राण संचार का कार्य करती हैं। गाँधार नाक में, हस्तिजिह्वा दाहिनी आँख में, पूषा दायें कान में, यशस्विनी बायें कान में, अलंबुसा मुख में, कुहू लिंग प्रदेश में और शंखिनी गुदा में जाती है।
हठयोग में नाभिकंद अर्थात् कुण्डलिनी का स्थान गुदा से लिंग प्रदेश की ओर दो अंगुल हटकर मूलाधार चक्र में माना गया है। स्वर योग में वह स्थिति माननीय न होगी। स्वर योग शरीर शास्त्र से संबंध रखता है और शरीर की नाभि गुदामूल में नहीं, वरन् उदर मध्य ही हो सकती हैं। इसीलिए यहाँ नाभिप्रदेश का तात्पर्य उदर भाग मानना ही ठीक है। श्वास क्रिया का प्रत्यक्ष संबंध उदर से ही है।
योग विज्ञान इस बात पर जोर देता है कि मनुष्य को नाभि तक पूरी साँस लेनी चाहिए। वह प्राणवायु का स्थान फेफड़ों को नहीं, नाभि को मानता है। गहन अनुसंधान के पश्चात् अब शरीरशास्त्री भी इस बात को स्वीकारते हैं कि वायु को फेफड़ों में भरने मात्र से ही श्वास का काम पूरा नहीं हो जाता। उसका उपयुक्त तरीका यह है कि उससे पेड़ू तक पेट सिकुड़ता और फैलता रहे एवं डायफ्राम का भी साथ-साथ संचालन हो। तात्पर्य यह कि श्वास का प्रभाव नाभि तक पहुँचना जरूरी है। इसके बिना स्वास्थ्य लड़खड़ाने का खतरा बना रहता है। इसीलिए सामान्य श्वास को योग विज्ञान में अधूरी क्रिया माना गया है। इससे जीवन की प्रगति रुकी रह जाती है। इसकी पूर्ति के लिए योग के आचार्यों ने प्राणायाम जैसे अभ्यासों का विकास किया। इसका इतना ही अर्थ है कि प्राणवायु नाभि तक पहुँचें और वहाँ से निकलने वाली दसों नाड़ियों में प्राण का प्रवाह उचित मात्रा में हो। आधुनिक शरीरशास्त्री योगशास्त्र में वर्णित इन नाड़ियों को, चीर-फाड़कर देह में ढूँढ़ने का प्रयास करते और नहीं मिलने पर उस पर अविश्वास करते हैं, जबकि सच्चाई यह है कि ये रक्त संचार से संबंधित रक्तवाहिनी नहीं, वरन् प्राण संचार से जुड़े हुए अत्यंत सूक्ष्म मार्ग हैं, जिन्हें यंत्रों से नहीं, सूक्ष्म दृष्टि से ही देख पाना संभव है।
स्वर विज्ञान पर सतर्क दृष्टि रखने वाले जानते हैं कि नासिका स्वर नियमित अंतराल में बदलते रहते और थोड़े ही क्षण के लिए साथ-साथ चलते हैं। यही सुषुम्ना नाड़ी की गतिशील अवस्था हैं। शेष समय में इड़ा-पिंगला बारी-बारी से चलती हैं। जो क्रमशः बायें-दायें नासिका स्वर द्वारा निरूपित होती हैं। इनका प्रवाह प्रायः हर घंटे में बदलता रहता है। जिस प्रकार समुद्र की लहरों पर सूर्य और चंद्र का प्रभाव पड़ता है, उसी प्रकार नासास्वरों को भी वे प्रभावित करते हैं। शुक्लपक्ष की प्रतिपदा को सूर्योदय के समय इड़ा नाड़ी अर्थात् बायाँ स्वर चलना प्रारंभ हो जाता है, जबकि कृष्णपक्ष की प्रतिपदा को अरुणोदय काल में पिंगला नाड़ी या दांया स्वर चलता है। उक्त नियमानुसार स्वरों का बदलना शारीरिक -मानसिक स्वस्थता की निशानी है। इसमें किसी प्रकार का व्यतिक्रम यह सूचित करता है कि सब कुछ निर्विघ्न और नैसर्गिक रूप में नहीं चल रहा है। यह असामान्य अवस्था और रोग की स्थिति है।
अर्जुन ने भगवान से नाता जोड़ा, पर वह मजबूत तभी हो सका जब उसने अपनी संकीर्ण स्वार्थपरता पर अंकुश लगाया। भीतर से दीन-दयनीय और कृपण कायरों की तरह बना हुआ अर्जुन रथ पर बैठा, गाण्डीव हाथ में लिए यह सोच ही नहीं पा रहा था कि मैं क्या करूँ? महाभारत का उद्देश्य भाइयों के झगड़े-टंटे का निबटाना नहीं था वरन् सामंतवादी बिखराव के कारण भारत के स्तर व भविष्य निरंतर चिंताजनक बनते जाने की जटिल समस्या का दूरगामी समाधान प्रस्तुत करना था। कृष्ण का उद्बोधन इसी निमित्त था। एक बार व्यामोह मिटा तो फिर अनीति पर विजय के रूप में ही उसकी परिणति हुई। अर्जुन स्वयं अपना, विश्वमानव का हित साध सकने में सफल हुआ, साथ ही अपनी मुक्ति का पथ भी उसने प्रशस्त कर लिया।
किंतु इसका यह अर्थ कदापि नहीं लगाया जाना चाहिए कि पंद्रह दिन तक बिलकुल एक-सी गति से ही स्वर चलेगा। चंद्र-सूर्य की गतियों और रश्मियों का प्रभाव उसमें परिवर्तन पैदा करता है। अस्तु, शुक्लपक्ष की प्रथमा, द्वितीया, तृतीया, सप्तमी, अष्टमी, नवमी, त्रयोदशी, चतुर्दशी तथा पूर्णिमा-इन तिथियों में सूर्योदय के समय इड़ा नाड़ी या चंद्र स्वर चलना चाहिए एवं शेष चतुर्थी, पंचमी षष्ठी, दशमी, एकादशी तथा द्वादशी को इस काल में सूर्य स्वर चलना प्राकृतिक, शुभ और स्वास्थ्यकारी माना गया है। इसी प्रकार कृष्णपक्ष में हर तीन दिन सूर्योदय के समय एक निश्चित स्वर ही चलना चाहिए-यह नैसर्गिक नियम है।
सूर्य-चंद्र के अतिरिक्त अन्य ग्रहों का भी प्रभाव स्वरों पर असर डालता है। तदनुसार कुछ वारों में उनमें विशिष्ट परिवर्तन दृष्टिगोचर होता है। चंद्र (सोम), बुध, गुरु और शुक्र इन चारों में और विशेषकर शुक्लपक्ष में बायाँ स्वर चलना शुभ और स्वास्थ्यकर है, जबकि रवि, मंगल एवं शनि को कृष्णपक्ष में दाहिनी नाड़ी चलना उत्तम है। रविवार को सूर्योदय पर सूर्य नाड़ी और सोमवार को चंद्र नाड़ी चलना आरोग्यवर्धक माना गया है। आकाश स्थित प्रधान ग्रहों का प्रभाव उनकी अपनी तथा पृथ्वी की चाल के अनुसार भूमंडल पर आता है। अपनी धुरी पर घूमने के अतिरिक्त एक निर्धारित मार्ग से पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा के लिए भी चलती रहती है। इस मार्ग में प्रधान ग्रहों की कुछ महत्वपूर्ण किरणें प्रायः एक के बाद एक स्पष्ट रूप से आगे आती हैं। अन्य दिनों में वे किरणें अन्य ग्रहों की आड़ में रुक जाती हैं। खगोल विद्या के इस अत्यंत सूक्ष्म तत्त्वज्ञान को समझते हुए प्राचीन आचार्यों ने वारों के नाम उनके अधिपति ग्रहों की प्रमुखता के आधार पर रखे थे। सूर्य और चंद्र नाड़ियों पर शुक्ल एवं कृष्णपक्ष की धन-ऋण विद्युत एवं वारों के अधिपति ग्रहों का जो प्रभाव स्वरों पर होता है, वह प्रातःकाल देखा जा सकता है। उपर्युक्त दिनों में स्वरों एवं नाड़ियों की भिन्नता दृष्टिगोचर होने का कारण मनुष्य शरीर पर पड़ने वाले अन्य ग्रहों का सूर्य-चंद्र युक्त प्रभाव ही है। जो ग्रह सूर्य से समता रखते हैं, वे सूर्य स्वर को और जो चंद्र से समता रखते है, वे चंद्र स्वर को प्रभावित-उत्तेजित करते हैं।
सर्वविदित है कि चंद्रमा का गुण शाँत-शीतल एवं सूर्य का उष्ण है। शीतलता से स्थिरता गंभीरता, विवेक प्रभृति गुण उत्पन्न होते हैं और उष्णता से तेज शौर्य, चंचलता, उत्साह, क्रियाशीलता, बल आदि गुणों का आविर्भाव होता है। मनुष्य को साँसारिक जीवन में शांतिपूर्ण और शौर्य एवं साहसपूर्ण दोनों प्रकार के काम करने पड़ते हैं। किसी भी कार्य का अंतिम परिणाम उसके आरंभ पर निर्भर हैं। इसलिए विवेकी पुरुष अपने कामों को प्रारंभ करते समय यह भली-भाँति सोच-विचार लेते हैं कि हमारे शरीर और मन की स्वाभाविक स्थिति इस प्रकार के काम करने के अनुकूल है या नहीं? एक विद्यार्थी को रात्रि में उस समय पाठ याद करने के लिए दिया जाए, जब उसकी स्वाभाविक स्थिति निद्रा चाहती है, तो वह पाठ को अच्छी तरह याद न कर सकेगा। यदि वही पाठ उसे प्रातःकाल की अनुकूल स्थिति में दिया जाए, तो आसानी से सफलता मिल जाएगी। ध्यान, भजन, चिंतन मनन, पूजन के लिए एकांत की आवश्यकता है; किंतु उत्साह भरने और युद्ध में प्रवृत्त होने के लिए उत्तेजक वातावरण की जरूरत पड़ती है। ऐसी उचित स्थितियों में किए हुए कार्य अवश्य फलीभूत होते हैं। इसी आधार पर स्वरयोगियों ने निर्देश किया है कि विवेकपूर्ण और स्थायी कार्य चंद्र स्वर में किए जाने चाहिए। अध्ययन, मनन, चिंतन, उपासना, योगाभ्यास, शोध, अनुसंधान, विज्ञान आदि ऐसे कार्य हैं, जिनमें अधिक गंभीरता और बुद्धिपूर्वक कार्य करने की जरूरत है। इसलिए इनका आरंभ भी ऐसे ही समय में होना चाहिए, जब शरीर के सूक्ष्म कोष चंद्रमा की शीतलता को ग्रहण कर रहें हों।
इसके विपरीत उत्तेजक और आवेश एवं जोश के साथ करने पर जो कार्य ठीक होते हैं, उनके लिए सूर्य स्वर उत्तम कहा गया है। अपराध, अन्याय, अत्याचार, परिश्रम रतिकर्म, ध्वंस, हत्या आदि कार्यों में दुस्साहस की आवश्यकता पड़ती है। यह पिंगला नाड़ी से ही उपलब्ध हों सकता है। यहाँ इन वर्जनाओं का समर्थन या निषेध नहीं है। शास्त्रकार ने तो एक वैज्ञानिक की तरह विश्लेषण कर दिया है कि ऐसे कार्य उस वक्त अच्छे होंगे, जब सूर्य की उष्णता के प्रभाव से जीवन-तत्व उत्तेजित हो रहा हो। शाँत और शीतल मस्तिष्क से यह क्रूर और कठोर कर्म कोई भली प्रकार कैसे संपन्न कर सकेगा?
इन दो नाड़ियों के अतिरिक्त अल्पकाल के लिए तीसरी नाड़ी-सुषुम्ना भी क्रियाशील होती है। इस समय दायें-बायें स्वर दोनों साथ-साथ सक्रिय होते हैं। तब प्रायः शरीर संधि अवस्था में होता है। यह संध्याकाल है। दिन के उदय और अस्त को भी संध्याकाल कहते हैं। इस समय जन्म या मरण काल के समान पारलौकिक भावनाएँ मनुष्य में जाग्रत होती हैं और संसार की ओर से विरक्ति, उदासीनता एवं अरुचि होने लगती है। स्वर की संध्या से भी मनुष्य का चित्त साँसारिक कार्यों से कुछ उदासीन हो जाता है और अपने वर्तमान अनुचित कार्यों से कुछ उदासीन हो जाता है और अपने वर्तमान अनुचित कार्यों पर पश्चाताप स्वरूप खिन्नता प्रकट करता हुआ कुछ आत्मचिंतन की ओर झुकता है। यह क्रिया बहुत ही सूक्ष्म होती है और थोड़े समय के लिए आती है। इसलिए हम अच्छी तरह पहचान भी नहीं पाते। यदि इस समय परमार्थ चिंतन और ईश्वराधना का अभ्यास किया जाए तो निस्संदेह उसमें बहुत उन्नति हो सकती है; किंतु साँसारिक कार्यों के लिए यह स्थिति उपयुक्त नहीं, अतएव सुषुम्ना स्वर में आरंभ होने वाले कार्यों का परिणाम अच्छा नहीं होता। वे अक्सर अधूरे या असफल रह जाते हैं। सुषुम्ना की दशा में मानसिक विकार दब जाते हैं और गहरे आत्मिक भाव का थोड़ा -बहुत उदय होता है, अस्तु इस समय में दिए हुए शाप-वरदान अधिकाँश फलीभूत होते हैं, कारण कि उन भावनाओं के साथ आत्मतत्त्व का बहुत कुछ सम्मिश्रण होता है।
कई बार एक ही स्वर लंबे समय तक लगातार चलता रहता है। यह ठीक नहीं। दाहिने या सूर्य स्वर के साथ यदि यह स्थिति आती है, तो इससे शारीरिक उष्णता बढ़ते जाने के कारण जीवन तत्व सूखने लगता है। फलतः कमजोरी आती एवं कार्यक्षमता घटती जाती है; आलस्य, अनुत्साह बढ़ने लगता तथा आयु क्षीण होने लगती है। इसके विपरीत बायें स्वर के लगातार चलते रहने से उसके शीतल होने के कारण शारीरिक स्वस्थता अवश्य प्रभावित होती है। ऐसी दशा में स्वर संतुलन के प्रति जागरूक और सचेष्ट रहना चाहिए और विकारग्रस्त स्वर को ठीक करने का प्रयास करना चाहिए।
अस्थायी रूप से स्वर बदलने के कितने ही तरीके है, जिनमें कुछ निम्न हैं-जिस स्वर को चलाना हो, उसके विपरीत करवट बदलकर थोड़ी देर उस अवस्था में लेटे रहने से स्वर बदल जाता है।
जो स्वर चल रहा हो, उस ओर काँख में हथेली को थोड़ी देर दबाए रखने से स्वर परिवर्तित हो जाएगा।
चलित स्वर में स्वच्छ रुई पतले स्वच्छ कपड़े में लपेटकर उसकी गोली रखने से स्वर बदलता है।
स्वर परिवर्तन के यह तात्कालिक उपाय हैं। रोगग्रस्त स्वर संभव है कि इन पद्धतियों से बदलकर थोड़ी देर पश्चात् पुनः पुराने क्रम में आ जाए। ऐसी दशा में विकार को दुरुस्त करने के लिए योगशास्त्र में कुछ प्रभावशाली तरीके बताए गए हैं, जिनके नियमित अभ्यास से स्वर संतुलन स्थापित हो जाता है। इनमें शाँभवी मुद्रा और त्राटक प्रमुख है। शाँभवी मुद्रा अधिक प्रभावी तकनीकी है और संतुलन शीघ्रतापूर्वक आता है। इसके अतिरिक्त प्राणचिकित्सा के अंतर्गत श्वासोच्छवास भी एक कारगर तरीका है, जिसके द्वारा स्वर विकार दूर किया जा सकता है।
श्वास का लंबा-छोटा होना भी सुनिश्चित लाभ-हानि का द्योतक है। स्वस्थ साँस का साधारण माप शास्त्रों में 12 अंगुल बताया गया है। इससे अधिक लंबी हानिकारक तथा छोटी लाभप्रद है। सोते समय इसकी लंबाई 30 अंगुल हो जाती है। इसलिए 6-7 घंटे से अधिक सोना अच्छा नहीं। भोजन के समय इसका नाप 20 अंगुल हो जाता है। अतएव बार-बार भोजन करना भी उचित नहीं। इससे लंबे समय तक लंबी साँस चलने से आयु घटती है। बीमारियों में इसकी लंबाई काफी अधिक बढ़ जाती है, जिसके कारण प्राण का क्षरण होने लगता है और दुर्बलता बढ़ने लगती है।
प्राणियों के साँस की संख्या भी जीवन की लघुता और दीर्घता को दर्शाती है। मनुष्य दिन-रात में प्रायः 216000 श्वास लेता है। इससे कम साँस लेने वाले प्राणी उसी अनुपात में दीर्घजीवी होते हैं। प्रति मिनट आदमी की साँस गति 13 है और उसकी उम्र 100 वर्ष। खरगोश प्रति मिनट 38 बार एवं आयु 8 वर्ष। कुत्ता 29 बार, वय 12 वर्ष। साँप 8 बार, उम्र 1000 वर्ष। कछुआ 5 बार, जीवन 2000 वर्ष।
प्राणायाम के अभ्यासी अपनी श्वसन गति को नियंत्रित कर लेते हैं, इसलिए वे दीर्घजीवी होते हैं। इसके अतिरिक्त गहरी साँस लेना, कमर सीधी रखकर बैठना एवं अचिंतनीय चिंतन से बचे रहना भी ऐसे कारक है, जो स्वास्थ्य संवर्द्धन और दीर्घजीवन को सुनिश्चित करते हैं। नाभि तक गहरी साँस लेने से एक प्रकार का कुँभक होता और श्वास संख्या घट जाती है। मेरुदंड के भीतर एक जीवन तत्व प्रवाहित होता है, जो सुषुम्ना को बलवान बनाता और मस्तिष्क को परिपुष्ट रखता है। कमर झुकाकर बैठने से इस प्रवाह में गतिरोध पैदा होता है। अचिंत्य चिंतन से साँस की गति तीव्र हो जाती है जो उम्र घटने का प्रधान कारण है।
स्वर शास्त्र के आचार्यों का मत है कि सोते समय चित्त लेटने से सुषुम्ना प्रवाह अवरुद्ध होने का खतरा रहता है। इसमें अशुभ तथा भयानक स्वप्न दिखाई पड़ते हैं। इसीलिए भोजनोपरान्त प्रथम बायें, फिर दायें करवट लेटना चाहिए।
शीतलता से अग्नि मंद पड़ जाती है और उष्णता से तीव्र होती है। यह प्रभाव हमारी जठराग्नि पर भी पड़ता है। सूर्य स्वर में पाचनशक्ति उद्दीप्त रहती है, अतएव उसी स्वर में भोजन करना उत्तम है तथा भोजन के पश्चात् भी कुछ समय उसी स्वर को सक्रिय रखना चाहिए। इससे पाचनक्रिया अच्छी प्रकार हो जाती है।
इस प्रकार स्वर विज्ञान के मर्म और महत्व को समझकर कोई भी व्यक्ति अपनी स्वस्थता को लंबे समय तक बनाए रख पाने में सफल हो सकता है। प्रकृति की मनुष्य को यह अनुपम देन है। इसका समुचित लाभ उठाया जाना चाहिए।